शुक्रवार, 15 सितंबर 2023

गाँव की दावत

 गाँव की दावत ...

शादियों का मौसम आने वाला है ...शहरों मे हर जगह दावतों के दौर शुरू होने ही वाले हैं । जब से इवेंट्स मैनेजमेंट वाले आये हैं , तब से बारात मे बैंड बाजा ठीक से बजा हो या ना बजा हो , खाने की बैंड ज़रूर बज गई है । पता नही क्या बनाते हैं कि इतना पैसा ख़र्चा करने के बाद भी खाने मे कोई स्वाद नही आता है । सभी व्यंजनों मे एक सा स्वाद और वह स्वाद भी केवल तेल मसालों के दम पर । वैसे इन खानों से पाचन क्रिया पर जो भयंकर बोझ पड़ता है वो एक अलग समस्या है। मै तो अमूमन आजकल किसी भी शादी विवाह से बिना खाये ही निकल लेता हूँ।  


शहर की आपाधापी वाले फ़ंक्शन्स के पहले शादी विवाह एक बेहद ही ख़ुशी का मौक़ा हुआ करता था ... महीनों पहले से लोग इनका इंतज़ार करते थे ।गाँव मे किसी के यहाँ भी शादी हो , सबके लिये एक उत्सव सा प्रतीत होता था । शादी विवाह का मौका गाँव के लोगो के बीच फैले अगाध प्रेम संबंधों का एक आइना होता था । घर वाले दिल की गहराइयों से सबको निमंत्रण देते थे और जी जान से यह प्रयास करते थे कि किसी को भी निमंत्रण देना भूल ना जायें । शादी विवाह मे दावत और खाने पर हमेशा विशेष ध्यान दिया जाता था । फलाने की शादी मे क्या क्या बना था और किस शादी मे क्या खास बना था , यह हमेशा चर्चा का विषय होता था । एक ही कार्ड मे पूरे गाँव को खाने का निमंत्रण मिल जाता था और निमंत्रण के बाद पूरा गाँव दावतों का बेसब्री से इंतज़ार करते था । 


मुझे याद है कि गाँव के गाँव पैदल ही चल देते थे दूसरे गाँवों मे दावत उड़ाने के लिये । बड़े बुजुर्ग गांव की भारी भीड़ को साथ लेकर हाथ मे लाठी और कंधे पर कुर्ता रखे हुए बडी शान से दावत मे जाते थे । सभी न्योतहरी ( निमंत्रण पाने वाले ) के हाथ मे चमचमाता हुआ पीतल का लोटा ज़रूर रहता था । दिसंबर जनवरी की कंपाने वाली ठंड मे भी बच्चे बूढ़े सभी कपड़ा उतार कर और जमीन पर पंक्ति मे बैठ कर दोना पत्तल मे खाना खाते थे , और खाना परोसने वाले को भी धोती या गमछा पहन कर ही परोसने की इजाज़त होती थी । 


दावत का खाना भी अमूमन निश्चित होता था ...आलू कोहडा़ (कद्दू) या अरवी का भरता ,पूड़ी -कचौड़ी और चक्की मे पीसी हुई चीनी और मट्ठा । पीतल का लोटा खाने के बाद मट्ठा पीने के काम आता था । खाने मे जोश इतना कि यदि परोसने मे थोड़ी सी भी कमी आ जाए तो बुजुर्ग अपना आपा खो देते थे और भरे समाज मे परोसने वालों को अपमानित भी कर देते थे ।कई लालची बुजुर्ग तो कम परोसने वालों को धत् सारे , रेरकट ,दरिद्री , कह कर गाली भी दे देते थे । वैसे परोसने वाले इस पर कोई प्रतिक्रिया नही देते थे और खाने वाले इन बातों पर खूब मज़ा लेते थे । इस तरह दावतों मे खाने के साथ साथ हास्य विनोद का तड़का भी खूब होता था । 


क्या शानदार , क्या मजेदार और क्या खाने के लिये उत्साह भरी होतीं थी गांव की दावतें। उसे आज की तारीख मे शब्दों से व्यक्त कर पाना नामुमकिन है । जिसने उन दावतों का मज़ा लिया है , वही उसकी अनुभूति कर सकते हैं । उस दावत मे ना ही फ्रूटचाट दिखता था और ना ही पेप्सी कोला ...ना तो मटर पनीर, शाही पनीर ,मलाई कोफ्ता जैसे हाई फ़ाई व्यंजन होते थे ...और ना ही खाने के अंत मे रसमलाई और आइस्क्रीम जैसे डेज़र्ट होते थे । फिर भी उन दावतों मे स्वाद बेहिसाब होता था ...फिर भी उस दावत के लिए बच्चे ,बड़े बुजुर्ग सभी लालायित रहते थे ...फिर भी लोग मीलों पैदल चलकर दावत खाने जाते थे। वजह थी कम्यूनिटी फीलिंग । एक के यहाँ का उत्सव सबके घर का उत्सव था ।सभी मिलकर इन प्रयोजनों की तैयारी भी करते थे और इनका आनंद भी मिलकर उठाते थे ...सामुदायिक जीवन प्रणाली का जीवंत उदाहरण थे पहले के शादी विवाह । खाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता था साथ मे खाना । और यह साथ की भावना ही उन तमाम मौक़ों को यादगार और स्वादिष्ट बनाती है । 


 समाज मे एक आपसी प्रेम था ... जीवन ऑरगैनिक हुआ करता था , आर्टिफीसियल नही । एक जुड़ाव था आपस मे और इसीलिये शादी विवाह एक कम्यूनिटी इवेंट के रूप मे स्थापित था । सबका शामिल होना ही शादी की सफलता थी और यह ध्यान रखा जाता था कि कोई छूट ना जाये । शायद इसीलिये दावत मे उत्साह था और भोजन मे स्वाद । और हाँ दावत से लौटते वक़्त यह चर्चा ज़रूर होती थी कि क्या अच्छा बना और क़िसमे स्वाद कम था । गाँव के लोगों को दशकों तक याद रहता था कि किस व्यक्ति की शादी मे क्या कमी रह गई थी और किसकी शादी मे क्या खास था । 


ग्राम सभ्यता के इतिहास मे शादी की दावतों का एक अपना ही स्थान है । जिन लोगों ने ऐसी दावतों का मज़ा लिया है उनके चेहरे पर ज़रूर एक मुसकान आयेगी और वह बरबस ही ऐसी किसी दावत की यादों मे डूब जायेंगे । 

@अंजनी कुमार पांडेय

  

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शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

 भगवान नागवासुकी मंदिर 

(यहाँ विराजमान हैं नागों के राजा )
प्रयागराज , इलाहाबाद 

प्रयागराज मे संगम तट से उत्तर दिशा की ओर दारागंज नामक मोहल्ले के उत्तरी कोने पर अति प्राचीन नागवासुकी मंदिर स्थित है। इस मंदिर में नागों के राजा वासुकी नाग विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में नाग-नागिन की स्पर्शधारी प्रतिमा है, जिसे नागवासुकी के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि परमपिता ब्रह्मा के मानसपुत्रों ने नागवासुकी को मूर्ति के रूप में यहां स्थापित किया हैं। यहां मौजूद पत्थर 10 वीं सदी से भी प्राचीन बताये जाते हैं। मंदिर परिसर मे गणेश व पार्वती, भीष्म पितामह की शर-शय्या पर लेट हुई प्रतिमा व भगवान शिव की भी मूर्ति स्थापित है।

नागवासुकी को शेषराज, सर्पनाथ, अनंत और सर्वाध्यक्ष कहा गया है। भगवान शंकर और विघ्नहरण गणेश इन्हें अपने गले में माला की तरह धारण करते हैं। पद्‌म पुराण में इन्हें संसार की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण कहा गया है- 

नमामि त्वां शाश्वतं शेष राजम्‌। 
विश्वोत्पत्ति स्थान संसार हेतुं॥ 
नागेशं त्वां सर्पनाश हयनन्तम्‌। 
सर्वाध्यक्षं वासुकिं त्वां नमामि॥ 

पद्मपुराण में कहा गया है कि जब माँ गंगा स्वर्ग से उतरीं तो वे पृथ्वी लोक से पाताल लोक में चली गईं। पाताल लोक में उनकी धार नागवासुकी के फन पर गिरी, तो उस स्थान को भोगवती तीर्थ  के नाम से जाना गया । जब नागवासुकी और शेष भगवान पाताल लोक से चल कर वेणीमाधव का दर्शन करने प्रयाग आए, तो भोगवती तीर्थ भी यहां आ गया।  बरसात के दिनों में जब गंगा में बाढ़ होती है, तब इसका जल नागवासुकी मंदिर की सीढ़ियों तक पहुंच जाता है, श्रद्धालु तब भोगवती तीर्थ में स्नान करते हैं। 

पद्म पुराण के पाताल खंड व श्रीमद्भागवत में भगवान नाग वासुकी और इस मंदिर का विस्तृत उल्लेख मिलता है। कथा के अनुसार, समुद्र मंथन में देवताओं व असुरों ने नागवासुकी को सुमेरु पर्वत में लपेटकर उनका प्रयोग रस्सी के तौर पर किया था। मंथन के चलते नागवासुकी के शरीर में काफी रगड़ हुई थी और जब मंथन समाप्त हुआ तो उनके शरीर में जलन होने लगी। जलन को दूर करने के लिए वासुकी मंद्राचल पर्वत चले गए, लेकिन उनके शरीर की जलन खत्म नहीं हुई। तब नाग वासुकी ने भगवान विष्णु से अपनी पीड़ा के बारे में बताया और जलन खत्म करने का उपाय पूछा। भगवान विष्णु ने नागवासुकी को बताया कि वह प्रयाग चले जाएं वहां सरस्वती नदी का अमृत जल का पान करें और वही विश्राम करें, इससे उनकी सारी पीड़ा है खत्म हो जाएगी।

प्रयाग के बारे में लिखी गई कई किताबों से यह पता चलता है कि नागवासुकी क्षेत्र में विषधर नागों का निवास था। ब्रिटिश काल में लिखी गई एक पुस्तक से पता चलता है कि पुराने जमाने में गंगा की धारा भारद्वाज आश्रम के नीचे से बहती थी, लेकिन नागवासुकी टीला उस जमाने में भी मौजूद था। इसके आसपास ऊंची धरती थी, जिस पर घना जंगल था, इस जंगल में विषैले नाग बड़ी संख्या में थे। 

इस मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि 
मुगलकाल में जब हिंदू धर्म स्थलों को पूरी तरह से तहस-नहस किया जा रहा था, उस समय नागवासुकी मंदिर को भी तोड़ने का प्रयास किया गया था। लेकिन मंदिर तोड़ने मे मुगल सैनिक सफल नहीं हुए और इसकी ख्याति मुगल शासक औरंगजेब तक पहुंची। तो वह खुद प्रयाग आया और उसने नागवासुकी मंदिर तोड़ने के लिए चढ़ाई कर दी। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि औरंगजेब गंगा तट की ओर से मंदिर में पहुंचा और अपनी तलवार निकालकर जैसे ही नागवासुकी की मूर्ति पर वार किया, अचानक नागवासुकी का दिव्य स्वरूप प्रकट हो गया। उनके विकराल और भयंकर स्वरूप को देखकर औरंगजेब कांपने लगा और डर कर बेहोश हो गया।

एक और कहानी के मुताबिक सन्‌ 1739 में नागपुर के शासक रघुजी भोंसले ने इलाहाबाद पर हमला किया। उन्होंने इलाहाबाद सूबे के प्रधान शासक शूजा  खान को लड़ाई में हराकर मार डाला। शूजा  खान को हराने के बाद मराठा सैनिकों ने इलाहाबाद शहर को बुरी तरह लूटा । जीत के नशे मे मराठा सैनिकों ने जनता पर खूब अत्याचार किया । जनता ने भोंसले राजा को जनता को लूटने के लिये श्राप दिया । 

कहते हैं इलाहाबाद से जाने के बाद मराठा राजा को कुष्ठ रोग हो गया था। राजा भोंसले के राज पंडित ने भगवान से  प्रार्थना की कि अगर राजा रोगमुक्त हो जायेंगे तो वो दारागंज इलाहाबाद स्थित नागवासुकी मंदिर  का जीर्णोद्धार कराएंगे। भगवान के आशिर्वाद से राजा का रोग दूर हो गया। कृतज्ञ राज पंडित ने नागवासुकी मंदिर इलाहाबाद का जीर्णोद्धार और साथ ही गंगा किनारे  के पक्के घाट का निर्माण करा दिया। इसके बाद से राजा भोंसले इलाहाबाद के नागवासुकी मंदिर के परमभक्त हो गये और जब तक जीवित रहे इस मंदिर की देखरेख के लिये अनुदान देते रहते थे। ऐसा मानना है कि नागपुर और आसपास की जगहों पर अवध के जो लोग पीढ़ियों से बसे हुये हैं , वह रघुजी भोंसले के समय मे ही इलाहाबाद से नागपुर गये थे ।

नागवासुकी मंदिर की अपार पौराणिक मान्यताएं भी है।ऐसा बोलते हैं कि यहां आकर पूजा करने से काल सर्प दोष हमेशा के लिए खत्म हो जाते है। श्रावण मास में तो शिवालयों की तरह नागवासुकी मंदिर में रुद्राभिषेक, महाभिषेक व काल सर्पदोष की शांति का अनुष्ठान चलता है।कुंभ, अर्द्धकुंभ, माघ मेले और नागपंचमी के दिन लाखों तीर्थयात्री इस मंदिर में दर्शन-पूजन करने आते हैं।इस मंदिर की महिमा का बखान सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रयागराज आने वाले हर श्रद्धालु और तीर्थयात्री की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती जब तक की वह नागवासुकी का दर्शन न कर ले।